भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चलो कुछ बुझे-बुझे ही सही / सांवर दइया
Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:03, 28 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem>चलो कुछ बुझे-बुझे ही सही। मन में सपने जगे तो सही। होंठ तक न हिले …)
चलो कुछ बुझे-बुझे ही सही।
मन में सपने जगे तो सही।
होंठ तक न हिले जिनके कभी,
हकला कहने लगे तो सही।
बहुत दृढ़ बने दुर्ग उनके,
कुछ-कुछ ढहने लगे तो सही।
बर्फ़ बनकर जम चुके थे जो,
रिस-रिस बहने लगे तो सही।
भूठ के साथ बहुत नंगे थे,
अब कुछ पहने लगे तो सही!