भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
खिड़कियां बंद करने लगे जो सभी / सांवर दइया
Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:55, 28 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem>खिड़कियां बंद करने लगे जो सभी। क्या होगा दुनिया का, सिचा कभी? चं…)
खिड़कियां बंद करने लगे जो सभी।
क्या होगा दुनिया का, सिचा कभी?
चंद होंठों पे है तबस्सुम तो क्या,
जमाने के अश्कों की सोचो कभी!
बंद कमरों में नहीं हक़ीक़ते-जहां,
सड़कों पे जो हो रहा, देखो कभी!
अब कौन कहां तक साथ ले-दे रहा,
यह इम्तिहां भी हो जाने दे अभी।
इतना मायूस न हो, उठ फूंक मार,
राख तले दबे अंगारे गर्म अभी?