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और रात में / लीलाधर मंडलोई
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घर के पिछवाड़े एक झोपड़ी
वहां एक परछाईं है
जो रात गए रोती है
वह तो एक बेवा की झोपड़ी
जो तेज-तर्रार बहुत
इतनी कि उसके मर्दानगी के किस्से कई
हर कोई उससे खौफजदा
उसकी तरफ देखना भी
तो बस चुराते हुए आंखें
रात के सहरा में फिर ये कौन
जो रोता है बेतरह
मैं सोचता हूं तो जेहन में
झोपड़ी कौंध-कौंध जाती है
कहीं ये वही बेवा तो नहीं
जो दिन में कुछ और है
और रात में
जिंदगी के तमाम दुःखों से
इस तरह से टूट जाती है
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