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गजगामिनि/ शास्त्री नित्यगोपाल कटारे

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गच्छसि कुत्र अरी गजगामिनि ।
हँससि किमर्थं त्वं माम दृष्ट्वा ,
तिष्ठ क्षणं हे कामिनि।


मार्गे चलसि सर्वतः पश्यसि ,
हे घनविद्युद्दामिनि।
खण्ड-खण्डितं पण्डित हृदयं
मम मन-अन्तर्यामिनि।।
गच्छसि कुत्र अरी गजगामिनि ।


स्वात्मानं पश्यन्त्यादर्शे ,
लज्जास्मित-गौरांगिनि।
अधोमुखी विलोकयसि धरणीं ,
निजस्वरूप-अभिमानिनि।।
च्छसि कुत्र अरी गजगामिनि ।


कथयसि कथं न किं कामयसे, 
हे भावी-गृहस्वामिनि।
शीघ्रं कुरु हर मम परितापं ,
कामज्वर-अपहारिणि।।
गच्छसि कुत्र अरी गजगामिनि ।


हे लघु वस्त्रे हे नयनास्त्रे ,
हे मम मनोविलासिनि।
मा कुरु वक्र-दृष्टि-प्रक्षेपं
भो भो मारुति-वाहिनि।।
गच्छसि कुत्र अरी गजगामिनि ।