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बचाव / अजित कुमार
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ज़िंदगी ढकी रही
जब तक
उसके बचने की आशा थी
तभी तक ।
ज्यों ही वह उघरी,
-थोड़ी-सी उभरी-
बस,
गुडुम-गुडुप-गड़ाप...
फिर गहरी स्तब्धता ।