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सांसें/ हरीश भादानी

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शहरीले जंगल में सांसें
हलचल रचती जाएं
कफ़न ओस का फाड़ बीच से
दरके हुए क्षितिज उड़ जाएं
छलकी सोनलिया कठरी से
आंखों के घड़िये भर लाएं
चेहरों पर ठर गई रात की
राख पोंछती जाएं
शहरीले जंगल में सांसें
हलचल रचती जाएं

पथरीले बरगद के साये
घास बांस के आकाशों पर
घात लगाए छुपा अहेरी
बुलबुल जैसे विश्वासों पर
पगडंडी पर पहिये कस कर
सड़कों बिछती जाएं
शहरीले जंगल में सांसें
हलचल रचती जाएं

सर पर बांध धुएं की टोपी
फरनस में कोयले हंसाएं
टीन काच से तपी धूप पर
भीगी भीगी देह छवाएं
पानी आगुन आगुन पानी
तन-तन बहती जाएं
शहरीले जंगल में सांसें
हलचल रचती जाएं

लोहे के बांवलिये कांटे
जितने बिखरें रोज बुहारें
मन में बहुरूपी बीहड़ के
एक-एक कर अक्स उतारें
खिड़की बैठे कम्प्यूटर पर
तलपट लिखती जाएं
शहरीले जंगल में सांसें
हलचल रचती जाएं

हाथ झूलती हुई रसोई
बाजारों के फेरे देती
भावों की बिणाजारिन तकड़ी
जेबें ले पुड़िया दे देती
सुबह-शाम खाली बांबी में
जीवट भरती जाएं
शहरीले जंगल में सांसें
हलचल रचती जाएं