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आखर / हरीश भादानी

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आखर
ऐसे दिए उन्होंने
जिन्हें मैं
बूझ न पाऊं
बूझ न पाऊं तो क्या बोलूं
कैसे बोलूं
और कभी
बोलना चाहा भी है मैंने
जीभ पर
ऐसे आखर चढ़े कि
फिसल टूट
बिसरे पहले ही
मुझको

यूं गूंगा रखने में ही तो
पर्वत होना था
उनका
आखर-आखर जोड़
अरथ बोला करती
वाणी से
अलगा दिया गया मैं
अब तो
इतना ही सोचे हूँ
एक जुलाहा आए
ले जा रखदे
आंगन की चटसार,
जुलाहिन के हाथों से
औंधी पड़ी
कठौती पर
थपथपती राग सुनूं
जुलाहे की आंखों
हाथों से तन-बुन
फलक हुआ करते
वे आखर
देखूं, सीखूं,
गाता फिरूं
गली चौराहों
           
फरवरी’ 82