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हाथ ही तो हैं / हरीश भादानी

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हाथ ही तो हैं
छानते हैं
सुबह से शाम
        आखी रात
पर्वत दिशा
धरती समुन्दर
अतलान्त को भी

मेरी देह से जुड़े
ये क्या हैं फिर
        तरेड़ा हो नहीं गया है
जिनसे
आंख भर का ही
अंधेरा.....
            
फरवरी’ 82