भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पीर कुछ ऐसी / हरीश भादानी

Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:56, 6 अगस्त 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem>पीर कुछ ऐसी बरसी सारी रात..... भोर कुछ और सुहानी होकर निकली बहु…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पीर कुछ ऐसी
बरसी सारी रात.....
    भोर कुछ और सुहानी होकर निकली


    बहुत घुली
    घुल-घुल गहराई
    बदरी विरहा साँस की


    उलझ-उलझ
    पथ भूली गंगा
    सपनों के आकाश की


रही तड़पती
बिजुरी-सी आधी बात
    ऊषा कुछ और कहानी होकर निकली
पीर कुछ ऐसी
बरसी सारी रात
    भोर कुछ और.....


    बहुत झुरी
    झुर-झुर कर रोई
    मन की आस अभाव में


    अनजाने
    अनगिन तट देखे
    आँसू के तेज बहाव में,


सूनेपन में
कुछ अपना लगा प्रभात
    धूप कुछ और सलोनी होकर निकली


पीर कुछ ऐसी
बरसी सारी रात
    भोर कुछ और.....


    रात चली
    रोती-रोती
    इस धरती का सिंगार कर


    सातों स्वर
    ले आई किरणें
    कली-कली के द्वार पर
सहमी-सहमी
कुछ जगी हृदय की साध
    साँस कुछ और सयानी होकर निकली


पीर कुद ऐसी
बरसी सारी रात
    भोर कुछ और सुहानी होकर निकली