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कोलाहल के आँगन / हरीश भादानी
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कोलाहल के आँगन
सन्नाटा रख गई हवा
दिन ढलते-ढलते.....
कोलाहल के आँगन!
दो छते कंगूरे पर
दूध का कटोरा था
धुँधवाती चिमनी में
उलटा गई हवा
दिन ढलते-ढलते.....
कोलाहल के आँगन!
घर लौटे लोहे से बतियाते
प्रश्नों के कारीगर
आतुरती ड्योढ़ी पर
सांकल जड़ गई हवा
दिन ढलते-ढलते.....
कोलाहल के आँगन!
कुंदनिया दुनिया से
झीलती हक़ीक़त की
बड़ी-बड़ी आँखों को
अँसुवा गई हवा
दिन ढलते-ढलते.....
कोलाहल के आँगन!
हरफ़ सब रसोई में
भीड़ किए ताप रहे,
क्षण के क्षण चूल्हे में
अगिया गई हवा
दिन ढलते-ढलते
कोलाहल के आँगन
सन्नाटा रख गई हवा
दिन ढलते-ढलते.....
कोलाहल के आँगन!