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प्यास सीमाहीन सागर / हरीश भादानी

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प्यास सीमाहीन सागर
    अंजुरी भरले कोई!


    लहरें टकरती पीर की
    मौनी किनारों से,
    झुलसी हुई ये लौटती
    तपते उतारों से


शेष सुधियाँ फेन जैसी
    आँगने रखले कोई!
प्यास सीमाहीन सागर.....


    दूरियों से दूरियों तक
    सिर्फ़ टीसें गूँजती,
    और बहकी-सी सिहरनें
    द्वार-ड्योढ़ी घूमती


सपन तारों से अनींदे
    आँख में भरले कोई!
प्यास सीमाहीन सागर.....


    आस जागेगी अलस कर
    रात जो करवट भरे,
    साँस पीलेगी स्वरों को
    भोर जो आहट करे


साध पूरब की किरणसी
    बाँह में भरले कोई!


प्यास सीमाहीन सागर
    अंजुरी भरले कोई!