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ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए..... / हरीश भादानी

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 ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए.....
    कुनमुनते तांबे की सुइयाँ
    खुभ-खुभ आंख उघाड़े
    रात ठरी मटकी उलटाकर
    ठठरी देह पखारे
        बिना नाप के सिये तक़ाज़े
    सारा घर पहनाए


ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए.....


    साँसों की पंखी झलवाए
    रूठी हुई अंगीठी,
    मनवा पिघल झरे आटे में
    पतली करदे पीठी
        सिसकी-सीटी भरे टिफिन में
    बैरागी सी जाए
ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए.....


    पहिये, पाँव उठाए सड़कें
    होड़ लगाती भागें
    ठण्डे दो मालों चढ़ जाने
    रखे नसैनी आगे,
        दो-राहों-चौराहों मिलना
    टकरा कर अलगाए


ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए.....


    सूरज रख जाए पिंजरे में
    जीवट के कारीगर,
    रचा, घड़ा सब बाँध धूप में
    ले जाए बाजीगर,
        तन के ठेले पर राशन की
    थकन उठा कर लाए


ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए.....