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25 / हरीश भादानी
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क्यों मुझे आवाज़ देते हो ?
रात पर रीझा हुआ
बहला करे वह कोई और होगा-
मैं तो
ढलती उम्र में जन्मे
इस साँझ के
बीमार बेटे के लिये
कफ़न बुनने में लगा हूँ,
रात का अंधेरा-
अजगर सा अपाहिज
जिस पर कोढ़ से फूटे हुए तारे,
सूनी हवाओं की हिलक से
खड़-खड़ाती पत्तियों-जैसी
दुखती-उखड़ती साँस,
मौत की सियाही-सी फटी-फटी
अंधेरे की अकड़ी हुई यह लाश
मैं जिसे अभी
बस अभी
पूरब में सुलगती
सुर्खियों में झोंक दूँगा,
फिर सुबह की गोद से जन्मी
हवा स्वरायेगी,
बिछेगी खूबसूरत धूप
और मैं-
उजली दिशाओं से बँधी-बँधी
पगडंडियों के साथ
आहटें आंके चलूँगा,
क्यों मुझे आवाज देते हो ?
कमजोर सपनों के झरोखों में
सोया हुआ जीवन जिये-
वह कोई और होगा !