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तनहाइयाँ-6 / शाहिद अख़्तर
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सहरा-ए-जीस्त में जब
यादों के फूल खिलते हैं
आँखों से उबलते हैं
गौहर-ए-नायाब के
दिल की बस्ती के परे
लहलहाती है जफ़ा की फ़स्ल
ढलते सूरज की सुर्खी से सराबोर
आसमाँ में तैरते हैं यास के बादल
उफ़्क पर दूर मंडलाती हैं
हसीं दिलफ़रेब तितलियाँ
माजी के आइने से
झाँकते हैं परीवश चेहरे
जानम तुम क्या जानो
कितना ख़ुशरंग है यह मंज़र
कितना लहूरंग?