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ओसकण और जीवन / अशोक लव
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मृदुल पंखुड़ियों पर
सोए ओसकण
भोर की शीतल हवा के गीत सुन
झूमने लगे
अरुणिम रश्मियों का प्रकाश पा
झिलमिला उठे
हौले से उतार उन्हें
हथेलियों पर
मन ने चाहा कर लेना बंदी उन्हें
मुठ्ठियों में
ओसकण कहाँ रह पाते हैं बंदी!
सूर्या की तपन का स्पर्श पाते ही
हो जाते हैं विलुप्त
जीवन!
तुम भी कहाँ रह पाते हो बंदी
मुठ्ठियों में?
कब फिसल जाते हो
पता ही नहीं चलता