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सुर-पाँखी / रवीन्द्र भ्रमर

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प्राणों के पिंजरे में पाला,
साँस-साँस में गाया,
बड़े जतन से वह सुर-पाँखी मेरे बस में आया।

साँझ-सकारे मन-बंसी पर मैंने उसको टेरा,
रसना की रेशमी धार पर दिन दुपहरिया फेरा,
अक्षर-मंत्र, शब्द के टोने, स्वर के बान चलाए
धीरे-धीरे उस निर्मम से कुछ अपनापा पाया।
बड़े जतन से वह सुर-पाँखी मेरे बस में आया।

जाने किस अनुराग पगीं उसकी रतनारी आँखें,
किस पीड़ा के नील रंग में रंगी हुई हैं पांखें,
उसके गहरे प्रेमराग को बूझ न पाया अब तक
अतुल स्नेह से उसके पंखों को हर क्षण सहलाया।
बड़े जतन से वह सुर-पाँखी मेरे बस में आया।

उसके रोम-रोम में महके वन-फूलों की प्रीत,
उसकी हर थिरकन में गूँजे घाटी का संगीत,
उसकी बोली में गूंगा आकाश मुखर हो जाए
मैंने शब्द-तूलिका से उसका यह चित्र बनाया।
बड़े जतन से वह सुर-पाँखी मेरे बस में आया।