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सहमते स्वर-2 / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’
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जीवन का नया दौर शुरू हुआ
बची-खुची साँसों को जीने की बेचैनी
ख़ूब ग्रह हैं मेरे भी
एक दिन काशी छोड़
मालवा जा पहुँचा था
महामना मालवीय का
कर्ज़ा चुकाने को,
लखनऊ बसने की बात
स्वप्न में भी नहीं सोची,
बचपन में सुनता था
परदादा चंदिका सिंह
यहीं कहीं खेत रहे
भारत के पहले स्वतन्त्रता-संग्राम में
अटकी थी याद कहीं
हज़रतगंज कॉफ़ी-हाउस की
जहाँ कभी झूमा था
मौजी मज़ाज़ संग
केसरिया कैसर बाग
अपने अजायबघर में
भीनी-सी महक छिपाए है
भगवतशरण उपाध्याय के
गंधमादन की।
मघई की महमहाती
भीतरी तरलता में
फूटा था बनारसी ठाट
बूटी की बहार
गहरे बाज़ी- बजरे में बिहार
तबसे अब तलक
रीवा,ग्वालियर,उज्जैन
इंदौर,काठमांडू, काशी
कहाँ-कहाँ भटका नहीं
हल्दी की गाँठ लिए
पंसारी मुद्रा में।