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दिन सहज ढले / त्रिलोचन

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रचनाकार: त्रिलोचन

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~ आओ इस आम के तले

इस घास पर बैठें हम

जी चाही बात कुछ चले

कोई भी और कहीं से


         बातों के टुकड़े जोड़ें

संझा की बेला है यह

         चुन-चुनकर तिनकें तोड़ें

चिन्ताओं के । समय फले ।


आधा आकाश सामने

क्षितिज से यहां तक आभा

नारंगी की । सभी बने ।


ऐसे ही दिन सहज ढले {'ताप के ताये हुए दिन' नामक संग्रह से )