भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिन सहज ढले / त्रिलोचन

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:04, 12 दिसम्बर 2007 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आओ इस आम के तले

इस घास पर बैठें हम

जी चाही बात कुछ चले

कोई भी और कहीं से


बातों के टुकड़े जोड़ें

संझा की बेला है यह

चुन-चुनकर तिनकें तोड़ें

चिन्ताओं के । समय फले ।


आधा आकाश सामने

क्षितिज से यहां तक आभा

नारंगी की । सभी बने ।


ऐसे ही दिन सहज ढले