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धूप / रामकृष्ण पांडेय
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1.
सफ़ेद बगुले-सी
उतरी है धूप
धरती पर बैठी है
पंख फैलाए
2.
सागर की लहरों से
छूटकर
रेत पर पड़ी है
झक-झक सफ़ेद सीपी-सी
धूप
3.
धूप को अपना अहसास नहीं है
जैसे चिड़ियों को अपने गीतों का नहीं है
जैसे पेड़ को अपने हरेपन का नहीं है
जैसे नदी को अपने प्रवाह का नहीं है
जैसे दिन को अपने उजाले का नहीं है
पर नहीं है अँधेरा अनमना
वह है बदस्तूर और भी घना