भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बाघिन / नागार्जुन
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:34, 22 जनवरी 2008 का अवतरण
लम्बी जिह्वा, मदमाते दृग झपक रहे हैं
बूंद लहू के उन जबड़ों से टपक रहे हैं
चबा चुकी है ताजे शिशुमुंडों को गिन-गिन
गुर्राती है, टीले पर बैठी है बाघिन
पकड़ो, पकड़ो, अपना ही मुंह आप न नोचे!
पगलाई है, जाने, अगले क्षण क्या सोचे!
इस बाघिन को रखेंगे हम चिड़ियाघर में
ऎसा जन्तु मिलेगा भी क्या त्रिभुवन भर में!
(१९७४ में रचित,'खिचड़ी विप्लव देखा हमने' नामक संग्रह से )