Last modified on 30 अगस्त 2010, at 20:26

पेड़ और भेड़ / ओम पुरोहित ‘कागद’

Ankita (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:26, 30 अगस्त 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: जब भी मेरी आंखों में उगते है नन्हे-नन्हे हरे-हरे पेड़ मेरे मन को …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जब भी मेरी आंखों में उगते है नन्हे-नन्हे हरे-हरे पेड़ मेरे मन को भीतरी कोने से आ सब तहस-नहस कर डालती है कमबख्त एक वहशी भेड़।

तब मैं हरियाली के तमाम सपने भूल कर पालने लगता हूं वह स्वप्नघाती भेड़ और फिर कहीं भी कभी भी यहां तक कि सम्भावनाओं तक में नहीं उग पाता कोई साध पुरता मरियल सा भी हरियल सा भी हरियल कोई पेड़।


कौन बचना चाहिये पेड़ या भेड़? यहीं सवाल मुझे कचोटता रहता है