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इमलि डिकिन्सन के लिए / स्मिता झा

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जब बरामदे में
पापा जी के क़दमों की चाप
तालबंदी करते हैं,
मेरी धड़कनें ख़ामोश हो जाती हैं
सबसे अच्छे बुरे क्षणों में
संवादशील होना चाहती हूँ...
पर वे ‘पोलस्टार’ हैं...।

अभिव्यक्ति चाहती हूँ
सुख-दुःख का संप्रेषण भी
मेरी सहमती कविताएँ
चिलकती हैं मन में
साँसों में घुटती हैं
पलकों से लुढ़कती हैं
सहमी-सी कविता
और सहमती है...
मुझ तक ही रहती है...

कविताओं के रोल बनाकर
शेल्फ में किताबों के पीछे छिपाती हूँ...।
क्यों...? पता नहीं आपको?
औरतें कविताएँ नहीं लिख सकतीं?

मैं बंद हूँ ‘होम-स्टीड’ में।
मेरा कोई दोस्त नहीं।
प्रेम नहीं करती मैं।
टेबू है यह।

वर्जनाएँ नहीं तोड़ती।
ईश्वर से प्रेम करती हूँ।

यौवन चले जाने की लकीरें
ज्यों ही बनती हैं मुझ पर
मौत का प्रिय आलिंगन मिलता है...।

मैं मुक्त हूँ, ‘होम-स्टीड’ से,
वर्जनाओं से, देखती हूँ...
यूरोप में...अफ्रीकी, एशियाई देशों में
पढ़ी जा रही हैं मेरी कविताएँ...!
इमलि डिकिंसन की कविताएँ...!
बिना शीर्षक के,
अंकों से सूचित कविताएँ...।
कविताएँ और कविताएँ...।

तो क्या...?
अब औरतें...!
कविताएँ...?
असंशोधित कविताएँ लिख सकती हैं...?