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अंतर्यात्रा / मंजुला सक्सेना

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शब्द छूटे भाव कि
अनुरागिनी में हो गयी .
देह छूती श्वास कि अनुगामिनी
में हो गयी .
क्या भला बाहर में खोजूँ ?
क्यूँ भला और किस से रीझूं?
आत्मरस का स्वाद पा,
आत्म्सलिल में हो निमग्न
आत्मपद कि चाह में ,
उन्मादिनी में हो गयी .
मैं तो अंतर्लापिका हूँ
कोई बूझेगा मुझे क्या?
जो हुए हैं 'स्व'स्थ स्वतः
उन महिम सुधि आत्मग्यों के
प्रेम के रसपान कि अधिकारिणी
मैं हो गयी,
शब्द छूटे भाव की
अनुरागिनी मैं हो गयी
देह छूती श्वास की अनुगामिनी
मैं हो गयी !

लेखन काल:२२-१-१९९८