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नए घर में प्रवेश (कविता) / नरेश अग्रवाल

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वर्षों से ताला बन्द था
उस नए घर में
कोई सुयोग नहीं बन रहा था
यहाँ रहने का

आज किसी शुभ हवा ने
दस्तक दी और खुल गए इसके द्वार
देखता हूँ, बढ़ रहा है
इसमें रहने को छोटा-सा परिवार
माता-पिता बच्चों सहित
साथ में दादा-दादी
सभी ख़ुश हैं

आज पहली बार खाना बनेगा
इसके रसोई घर में
छोंकन से महकेगा सारा घर
कुछ बचा-खुचा नसीब होगा
आस-पास के कुत्तों और पक्षियों को भी
कुछ पेड़-पौधे भी लगाए जाएँगे
साथ में तुलसी घर भी होगा आँगन में
पिछवाड़े में होंगे स्कूटर और साइकिल
और एक कोने में स्थापित होंगी
ईश्वर की कुछ मूर्तियाँ ।

कुछ ऊँचे स्वर भी सुनाई देंगे
कभी-कभार दादा के
जो बताएँगे
अभी घर की सारी सुरक्षा का भार
उन्हीं के सिर पर है ।