भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रिश्ता / गोबिन्द प्रसाद
Kavita Kosh से
Mukeshmanas (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:37, 8 सितम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गोबिन्द प्रसाद |संग्रह=कोई ऐसा शब्द दो / गोबिन्द…)
भूख के शीशे भी
धुँधले पड़ चुके हैं अब
शीशा तो जरिया था
उठे हुए हाथों और सोये हुए बदरंग धब्बों के बीच
आर-पार देखने का
बँधी हुई मुट्ठी और फैले हुए हाथों के बीच
चुप और चिल्लाते हुए
हाथों के बीच
रोटी; एक रिश्ता थी
और यह रिश्ता भी भूख के शीशों की तरह
धुँधला होता जा रहा है
तो क्या भूख का शीशा
रोटी का रिश्ता
अँधेरे में खुलते वे द्वार हैं
जहाँ हम एक दूसरे को नहीं पहचानते!