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लोग रहते हैं जिन मकानों में / रामकुमार कृषक

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लोग रहते थे जिन मकानों में
ख़ूब बदले हैं वे दुकानों में

कर्ज ही नुस्ख-ए-तरक़्क़ी है
चलिए चलते हैं शफ़ाख़ानों में

ख़ास मेहमाँ है पेप्सी-कोला
ख़ास हम भी हैं मेज़बानों में

इश्क़ डॉलर से रश्क डॉलर से
रूप रुपए का नाबदानों में

जिस्म सोना है रुह तो राँगा
कद्रो-कीमत है कद्रदानों में

रोज़ उड़िए उकाब की नाईं
पंख जिसके भी हों उड़ानों में

लोग बेकार नापते सड़कें
कार ढलती है कारख़ानों मे