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शब्दों की पीड़ा / मनोज श्रीवास्तव

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शब्दों की पीड़ा

दुखते भावों को सहलाते
तरल विचारों को सिमटाते
आज कैद हैं शब्द हमारे

मिथक-श्वांस से किए प्रवाहित
प्राण-पुराण, जो हुए समाहित
शब्द-नयन में, दृष्टि उघारे

लम्पट अर्थों की शमशीरें
खोद रही हैं धीरे-धीरे
नींव हिंद की, कौन उबारे