Last modified on 28 फ़रवरी 2008, at 09:49

विरक्ति के मुंह में / केदारनाथ अग्रवाल

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:49, 28 फ़रवरी 2008 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

एक और दिन उड़ गया

कबूतरी गुटरगूं का ।


एक और शाम ढल गई

गुलाब पंखुरियों की ।


एक और रात रो गई

ओस के मोतियों की ।


अब तक अकेला मैं अकेला हूं

विरक्ति के मुंह में,

त्रिकाल को भोगता,

दिन के साथ उड़ता,

शाम के साथ ढलता,

रात के साथ रोता ।


('पंख और पतवार' नामक कविता-संग्रह से)