Last modified on 23 सितम्बर 2010, at 18:59

वह शख़्स(3) / शमशेर बहादुर सिंह

द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:59, 23 सितम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शमशेर बहादुर सिंह |संग्रह=चुका भी हूँ मैं नहीं! / …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

आह तुम क्यों न धँसे
तम-पाषाण-
मेरे मानस-तल में कसमस?

बरस चुके वे बाण
अग्नि के-
पावक-पल के बाण,
जो गिर कर नीरव आँचल में क्षिति के
व्यर्थ बुझे!
मेरा हृदय जला न ,
यद्यपि तपा बहुत वह
अनल छाँह में।
झुलसा भी न गया
पाकर कटु-मादक-तम
अंतिम उल्कापात।