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संस्कार नगरी / गुलाम मोहम्मद शेख

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ताड़ के पत्तों को चीर कर
पूर्णिमा का चाँद
म्यूज़ियम की नक़्शीदार छत पर
आ खड़ा होता है ।

पदच्युत राजवी से
उसके फीके पड़े चेहरे को देखने की
किसी को फ़ुरसत नहीं है ।

म्यूज़ियम के तहख़ाने में बंद
व्हेल के अस्थिपंजर की तरह
उसे जिज्ञासा भरी दृष्टि से देखने को भी
कोई तैयार नहीं है ।
 
भेड़ जैसी नगरी
उजाले को सूँघती हुई
अंधेरे की ओर चल देती है ।
बौखलाया हुआ चाँद
म्यूज़ियम की चोटी पर चढ़ बैठता है ।

शिखर पर थाली की तरह डगमगाते
उसके हास्यास्पद चेहरे को देख कोई हँसता नहीं है ।
गंभीर मुख-मुद्रा वाले सज्जन एवं नारियाँ
बंद दरवाज़ों के पीछे, म्यूज़ियम की ममी की पट्टियाँ खोल कर
खाने बैठते हैं

तब सूअर सा भूखा चाँद
रास्ते पर जीभ घिसता हुआ
नथुने फुलाता हुआ
यहाँ-वहाँ भटकता रहता है ।
                          

मूल गुजराती भाषा से अनुवाद : पारुल मशर