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गर्मियों की एक रात में / गुलाम मोहम्मद शेख

आज की रात में
अमलतास के पीले फूल नीचे गड्ढ़े में झरते हैं ।
ऐसा लगता है कि फूल सारी रात झरते रहेंगे
और सुबह तक
अमलतास निर्वस्त्र हो गया होगा ।

गड्ढ़े पर फूलों की परत चढ़ गई होगी,
पानी और भूमि के बीच की संधि-रेखा मिट गई होगी ।
पास के शिरीष की कोमल पत्तियों में उँगली घुमाता हुआ चंद्र चढ़ रहा है ।
शिरीष के पत्तों की नमी
और आकाश से निस्तारित उजाले के बीच कोई अंतर नहीं रहा ।

छज्जे पर बोगनवेलिया की बेल अपनी परछाई पर झूल रही है,
झरोखे के कोटर में उनींदे कपोत की नाक तक
आँगन की निबौरी की गंध उड़ रही है ।

छज्जे के छप्पर के अंदर बाँस से बिज्जु<ref>वनियर</ref> नीचे सरक रहा है ।
रास्ते को दोपहर की धूप का जंग लगा था,
वह अब धुल गया है ।
 
मेरे अर्ध-बंद कमरे के दरवाज़े से गर्मी के सोते फूट रहे हैं
और पायदान पर पहुँचते ही ढेले से ढह जाते हैं ।
मैं दुविधा में खड़ा रहता हूँ
तभी अमलतास पूरा ही मुझ पर बरस पड़ता है ।

शब्दार्थ
<references/>


मूल गुजराती भाषा से अनुवाद : पारुल मशर