Last modified on 3 अक्टूबर 2010, at 13:00

जीवन जिया मैंने / अमरजीत कौंके

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:00, 3 अक्टूबर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरजीत कौंके |संग्रह=अंतहीन दौड़ / अमरजीत कौंके …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

उन लोगों की तरफ देखकर
नहीं जिया जीवन मैने
जिन्होंने मेरे रास्तों में
काँच बिखेर दिया
और मेरे लहू को
सुलगते खंजरों की
तासीर बताई

जिन्होंने
मेरे मासूम मन पर
रिश्तों की परिभाषा को
उल्टे अक्षरों में
लिख दिया
उन लोगों को देखकर
नहीं जिया जीवन मैने

उन लोगों की ओर देखकर भी
नहीं जिया जीवन मैंने
जिन्होंने
इस धरा को
नर्क बनाने में
कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी
जो मौत के बन्जारे बन कर
बेगुनाह सीनों में
सुराख़ करते रहे
भोली-भाली आँखों में जो
आँसूओं के सागर भरते रहे
उन लोगों को देखकर भी
नहीं जिया जीवन मैंने

मैं जीवित रहा
उन लोगों को देखकर
जो मेरे कुछ नहीं थे लगते
लेकिन उनके कमरे
मेरी उदास संध्या की ठहरगाह बने
कितनी ही बार ख़ुदकुशी की तरफ़ जाते
मेरे क़दमों के लिए पनाह बने

उन लोगों को
देखकर जिया जीवन मैंने
जिनके सीने में
मैंने प्यार के चिराग जलते देखे
अभी भी देखे जो
मरूस्थली रास्तों पर
गुलमोहर बीजते

सचमुच उन लोगों को देखकर
जिया जीवन मैंने
जिन्होंने इस जीवन का
अंदर बाहर प्यार से भर डाला
गहन उदासी में भी
जिनके प्यार ने
मनुष्य को जीने के काबिल कर डाला

उन लोगों को देखकर
जिया जीवन मैंने ।