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अहा ग्राम्य जीवन भी... / लाल्टू
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शाम होते ही उनके साथ उनकी शहरी गन्ध उस कमरे में बन्द हो जाती है ।
कभी-कभी अँधेरी रातों में रज़ाई में दुबकी मैं सुनती उनकी साँसों का आना-जाना ।
साफ़ आसमान में तारे तक टूटे मकान के एकमात्र कमरे के ऊपर मँडराते हैं ।
वे जब जाते हैं मैं रोती हूँ ।
उसने बचपन यहीं गुज़ारा है मिट्टी और गोबर के बीच, वह समझता है कि मैं उसे आँसुओं के उपहार देती हूँ ।
जाते हुए वह दे जाता है किताबें साल भर जिन्हें सीने से लगाकर रखती हूँ मैं ।
साल भर इन्तज़ार करती हूँ कि उनके आँगन में बँधी हमारी सोहनी फिर बसन्त राग गाएगी ।
फिर डब्बू का भौंकना सुन माँ दरवाज़ा खोलेगी कहेगी कि काटेगा नहीं ।
फिर किताब मिलेगी जिसमें होगी कविता - अहा ग्राम्य जीवन भी...