भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुहब्बतों का सुरूर / संजय मिश्रा 'शौक'

Kavita Kosh से
Alka sarwat mishra (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:39, 16 अक्टूबर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna}} रचनाकार=संजय मिश्रा शौक संग्रह= …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

                  रचनाकार=संजय  मिश्रा शौक   
                  संग्रह=
                  }}
                  साँचा:KKCatkavita


मैं अपनी आँखें न बंद कर लूं तो क्या करूं अब
जहां भी देखो, जिधर भी देखो
वहीं हैं दैरो-हरम के झगड़े.
जिसे भी देखो वो अपने मज़हब को सबसे ऊंचा बता रहा है
वो दूसरों के गुनाह हमको गिना रहा है, सुना रहा है.
उसे ख़बर ही नहीं है शायद
हर एक मज़हब के रास्ते की है एक मन्ज़िल
वो सबका मालिक जो एक है पर
न जाने उसके हैं नाम कितने,
सब उसकी महिमा को जानते हैं
मगर न मानेंगे इसकी कसमें उठाए फिरते हैं जाने कब से.
वही है दैरो-हरम का मालिक
तो मिल्कियत का वही मुहाफ़िज़ हुआ यक़ीनन
मगर ये ऐसा खुला हुआ सच
कोई न समझे तो क्या करें हम?
पढ़े-लिखे और कढ़े हुए सब
इस एक नुकते पे अपनी आँखों को बंद करके उलझ रहे हैं.
ख़ुदा, ख़ुदा है, वो सब पे क़ादिर है जब तो फिर क्यों
तमाम खल्के-ख़ुदा को शक है.
वो चाह ले तो तमाम दुनिया को एक पल में मिटा के रख दे
मगर वो मखलूक के दिलों में
मुहब्बतों के चराग़ रोशन किए हुए है.
हवस-परस्ती में रास्ते से भटक गए हैं जो चंद इन्सां
वही तो अपनी शिकस्त ख़ुर्दा अना की ज़िद में
अड़े हुए हैं.
वो नफ़रतों की तमाम फ़सलों को खून देने में मुन्हमिक हैं
उन्हें पता भी नहीं कि उनका ये कारे-बेजा
हमारी नस्लों को उनके वरसे में जंग देगा
तमाम इंसानियत की चीख़ें सुनेंगे हम-तुम
ज़मीं पे क़ह्तुर्रिज़ाल होगा.
सो, ऐसा मंजर कभी न आए
ख़ुदा-ए-बरतर
दुआ है तुझ से
हवस-परस्तों के तंग दिल को वसीअ कर दे
कुदूरतों को मिटा के उन में भी नूर भर दे
मुहब्बतों का सुरूर भर दे, मुहब्बतों का सुरूर भर दे!