भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बैसाखी पर चलते लोग/ उदयप्रताप सिंह

Kavita Kosh से
Bharat wasi (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:38, 17 अक्टूबर 2010 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इन ढालों के दुर्गम पथ पर देखे रोज़ फिसलते लोग ।

फिर कैसे शिखरों पर पहुंचे बैसाखी पर चलते लोग !


प्यारी नदियों की आहों पर ह्रदय तुम्हारा पिघल गया

सच कहता हूँ मित्र हिमालय, जग में नहीं पिघलते लोग ।


आलीशान इबदातखाने लेकिन इनमें आए कौन

दहशत के मौसम में अपने घर से नहीं निकलते लोग ।


हम क्या जानें धर्म की बातें जाकर उनसे पूछ न लो

हर मौसम में पोशाकों-सा जो ईमान बदलते लोग ।


हम हैं राही प्रेम-डगर के बाज़ न आए मर कर भी

दुनिया वाले कहते ठोकर खाकर यहाँ संभलते लोग ।


औरों की पीड़ा से गौतम हरगिज़ बुद्ध नहीं होते

यदि वैभव की चकाचौंध के मारे नहीं बदलते लोग ।


कर्म बड़ा तो जाति बड़ी है मानो ‘उदय’ हमारी बात

वरना तुम जैसे सडकों पर मिलते बहुत टहलते लोग ।