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न होने की गंध / केदारनाथ सिंह

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रचनाकार: केदारनाथ सिंह

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अब कुछ नहीं था

सिर्फ़ हम लौट रहे थे

इतने सारे लोग सिर झुकाए हुए

चुपचाप लौट रहे थे

उसे नदी को सौंपकर

और नदी अंधेरे में भी

लग रही थी पहले से ज्यादा उदार और अपरम्पार

उसके लिए बहना उतना ही सरल था

उतना ही सांवला और परेशान था उसका पानी


और अब हम लौट रहे थे

क्योंकि अब हम खाली थे

सबसे अधिक खाली थे हमारे कन्धे

क्योंकि अब हमने नदी का

कर्ज़ उतार दिया था

न जाने किसके हाथ में एक लालटेन थी

धुंधली-सी

जो चल रही थी आगे-आगे

यों हमें दिख गई बस्ती

यों हम दाखिल हुए फिर से बस्ती में


उस घर के किवाड़

अब भी खुले थे

कुछ नहीं था सिर्फ़ रस्म के मुताबिक

चौखट के पास धीमे-धीमे जल रही थी

थोड़ी-सी आग

और उससे कुछ हटकर

रखा था लोहा

हम बारी-बारी

आग के पास गए और लोहे के पास गए

हमने बारी-बारी झुककर

दोनों को छुआ


यों हम हो गए शुद्ध

यों हम लौट आए

जीवितों की लम्बी उदास बिरादरी में


कुछ नहीं था

सिर्फ़ कच्ची दीवारों

और भीगी खपरैलों से

किसी एक के न होने की

गंध आ रही थी


('अकाल में सारस' नामक कविता-संग्रह से)