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बरखा का दिन / केदारनाथ अग्रवाल

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मैंने देखा :
यह बरखा का दिन!
मायावी मेघों ने सिर का सूरज काट लिया;
गजयूथों ने आसमान का आँगन पाट दिया;
फिर से असगुन भाख रही रजकिन।

मैंने देखा :
यह बरखा का दिन!
दूध-दही की गोरी ग्वालिन डरकर भाग गई;
रूप-रूपहली धूप धरा को तत्क्षण त्याग गई;
हुड़क रही अब बगुला को बगुलिन!

मैंने देखा :
यह बरखा का दिन!
बड़े-बड़े बादल के योद्धा बरछी मार रहे;
पानी-पवन-प्रलय के रण का दृश्य उभार रहे;
तड़प रही अब मुँह बाए बाघिन।

रचनाकाल: २७-०७-१९७९