भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गमछा / भोला पंडित प्रणयी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:36, 19 अक्टूबर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भोला पंडित प्रणयी |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> अपने परिध…)
अपने परिधान के
सबसे सस्ते वस्त्र
गमछे को
मैं प्रायः अपने गले में
मित्रवत् लपेटकर रखता हूँ
और वह भी
मेरे व्यक्तित्व की शोभा बढ़ाने में
दो कदम आगे ही रहता है,
वह कभी मेरे चश्मे के
मोटे शीशे को पोंछता
तो कभी जाड़े में
कानों को लपेट लेता-
फिर कभी गर्मी में
पसीना पोंछ
पंखा भी झलता है ।
वह कभी शरीर पर पड़ी
धूल झाड़ता
तो कभी लुंगी बन
मेरे गुप्तांगों को ढँक
मेरी लज्जा बचाता ।
उसका एहसानमंद हो
मेरा भी यह प्रयत्न रहता कि मैं भी
उसे अपने माथे की पगड़ी बनाकर रखूँ ।