भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वह बाग़ में मेरा मुंतज़िर था / परवीन शाकिर

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:06, 29 मई 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} रचनाकार: परवीन शाकिर Category:कविताएँ Category:परवीन शाकिर ~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~ ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रचनाकार: परवीन शाकिर

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~


वह बाग़ में मेरा मुंतज़िर था

और चांद तुलूअ हो रहा था

ज़ुल्फ़े-शबे-वस्ल खुल रही थी

ख़ुशबू सांसों में घुल रही थी

आई थी मैं अपने पी से मिलने

जैसे कोई गुल हवा में खिलने

इक उम्र के बाद हंसी थी

ख़ुद पर कितनी तवज्ज: दी थी


पहना गहरा बसंती जोड़ा

और इत्रे-सुहाग में बसाया

आइने में ख़ुद को फिर कई बार

उसकी नज़रों से मैंने देखा

संदल से चमक रहा था माथा

चंदन से बदन दमक रहा था

होंठों पर बहुत शरीर लाली

गालों पे गुलाल खेलता था

बालों में पिरोए इतने मोती

तारों का गुमान हो रहा था

अफ़्शां की लकीर मांग में थी

काजल आंखों में हंस रहा था

कानों में मचल रही थी बाली

बाहों में लिपट रहा था गजरा

और सारे बदन से फूटता था

उसके लिए गीत जो लिखा था

हाथों में लिए दिये की थाली

उसके क़दमों में जाके बैठी

आई थी कि आरती उतारूं

सारे जीवन को दान कर दूं


देखा मेरे देवता ने मुझको

बाद इसके ज़रा-सा मुस्कराया

फिर मेरे सुनहरे थाल पर हाथ

रखा भी तो इक दिया उठाया

और मेरी तमाम ज़िन्दगी से

मांगी भी तो इक शाम मांगी


तुलूअ=उदय; शरीर= शरारती