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वक़्त ज़ाए न अब किया जाए / पुरुषोत्तम 'यक़ीन'
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वक़्त ज़ाए न अब किया जाए
नज़्म घर का बदल लिया जाए
हम ने क्या-क्या न सहा अब तक
अब तो मिलजुल के कुछ किया जाए
सर झुका है तो फ़िर कटेगा ज़रूर
क्यूँ न सर को उठा लिया जाए
जानता हूँ तुम इस से खेलोगे
फिर भी सोचा है दिल दे दिया जाए
मुद्दतों में मिली है तन्हाई
आज जी भर के रो लिया जाए
इतनी नज़्दीकियाँ भी ठीक नहीं
तुम से कुछ दूर हो लिया जाए
गाड़ी अब और यूँ चलेगी नहीं
सोचना ये है, क्या किया जाए
ज़ुल्म दिल पर 'यक़ीन' और नहीं
प्यार ख़ुद से भी अब किया जाए