तुम भी कुछ हो
लेकिन जो हो
वह कलियों में-
रूप-गंध की लगी गाँठ है
जिसे उजाला
धीरे-धीरे खोल रहा है।
रचनाकाल: २५-०३-१९५८
तुम भी कुछ हो
लेकिन जो हो
वह कलियों में-
रूप-गंध की लगी गाँठ है
जिसे उजाला
धीरे-धीरे खोल रहा है।
रचनाकाल: २५-०३-१९५८