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गाँव बिक रहा है-2 / अमरजीत कौंके

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धूप, बरसात, आँधियों से
सब कुछ ढह गया
एक बैठक के सिवाय

बैठक
जिसको
कहीं से
गाँव में
बनवाई

लिये मेरे दादा ने
गार्डर मँगवाए
बल्लियाँ
उन्होंने अपनी शान की ख़ातिर
बनाई थी बैठक

मैं छोटा-सा बालक होता था तब
गाँव की औरतें
इस बैठक के लाल फर्श पर
बैठ कर गर्व महसूस करती

जिसके ठीक बीच में
एक बड़ा सफेद चक्र था
मेरी दादी इस बैठक के
दरवाजे़ के बीचों-बीच
मशीन रख कर सिलाई करती
औरतें उस के पास
बहाने से आतीं

पूरे बीस बरस बाद
मैं बैठक का जंग लगा ताला तोड़ कर
दरवाजे़ को मुश्किल से खोल कर
खड़ा हूँ

गार्डरों बल्लियों से लटकते जाले
फर्श पर जमी हुई धूल है
इसके बीच का सफेद चक्र
मिट्टी से लथपथ सिसकता है

मैं बीस बरस पहले
और बीस बरस बाद का समय
एक ही साथ जी रहा हूँ
मुझे लगता है
कि मेरे दादा अभी भी
इसी बैठक के किसी कोने में
रह रहे हैं
मेरी दादी अभी भी
अपने संदूक के
बिल्कुल पास खड़ी हैं
मैं उनकी परछाई देखता हूँ

सामने शैल्फ पर
लालटेन पड़ी है
एक कोने में थापी, पटरियाँ
फ़ालतू खटिया

थापी से मुझे मेरी दादी का
कपड़े धोना याद आता है
यह भी याद आता है
कि मेरे दादा
दूध से सफेद कपड़े पहनने के
शैकीन थे
मैंने कई बार उन्हें कपड़ों पर
दाग रह जाने के लिये
अपनी दादी से
झगड़ते देखा था

मेरे दादा
अपने कपड़ों की तरह
अपनी बेदाग आत्मा लेकर
इस दुनिया से विदा हो गए

इस बैठक को देखकर
मेरे भीतर बहुत कुछ जाग रहा है
एक-एक वस्तु
मेरे भीतर
एक साकार अस्तित्त्व बनकर
धड़कने लगती है
मेरे भीतर स्मृतियों की
जैसे आँधी-सी चलती है

धूप, आँधी, बरसात में
सब कुछ ढह गया
एक बैठक के सिवाय ।

मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा