Last modified on 27 अक्टूबर 2010, at 22:44

एक नास्तिक का स्वत्व / महेश चंद्र द्विवेदी

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:44, 27 अक्टूबर 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

पता नहीं भूत में कहीं था
अथवा कहीं भी नहीं था
मैं
और मेरा अस्तित्व,
और पता नहीं क्यों,
किसलिए,
और किसके लिए
उत्पन्न हुआ है मेरा स्वत्व?

पर मैं इतना जानता हूँ
कि संक्षिप्त अवधि
एवं
सीमित समय के लिए ही सही
मैं मैं हूँ,
और मेरे साथ है मेरा अहम्,
जिसको न कोई झुठला सकता है
न कह सकता है वहम ।

मैं यह भी जानता हूँ
कि
ब्रह्माण्ड के अनंत विस्तार में
स्थित एक बिन्दु
एवं
समय की अनादि खोह में
अप्रतिम उत्सर्जन के एक क्षण
की उत्पत्ति हूँ मैं ।

धनात्मक विद्युत का आवेश
ज्यों मदमस्त हो
ऋणात्मक विद्युत के
आवेश से मिलता है
और
आनंदातिरेक में तड़ित टंकार करता है
ऐसे ही किसी चरम-आनंद के मिलन
की कृति हूँ मैं ।

आस्तिकों का कहना है
कि ब्रह्म निर्लिप्त है
निस्पृह है,
परन्तु फिर भी सर्वदृष्टा एवं सर्वनियन्तः है
समस्त जगत का उत्पादक एवं संचालक है

जड़ एवं चेतन की उत्पत्ति
उसी की इच्छा पर निर्भर है

मैं कैसे मान लूँ
यह कुतर्क,
एक स्पष्ट विरोधाभास ?

क्यों स्वीकार करूँ
कोई ब्रह्म साकार अथवा निराकार
एक काल्पनिक सत्ता को व्यर्थ में क्यों दूँ
अहंकार का अधिकार ?