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जहनुमी/ जावेद अख़्तर
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मै अक्सर सोचता हूँ
जहन की तारीक गलियों में
दहकता और पिघलता
धीरे धीरे आगे बढ़ता
गम का ये लावा
अगर चाहूँ तो रुक सकता है
मेरे दिल की कच्ची खाल पर रखा ये अंगारा
अगर चाहूँ
तो बुझ सकता है
लेकिन
फिर ख्याल आता है
मेरे सारे रिश्तो में पड़ी
सारी दरारों से
गुजर कर आने वाली बर्फ से ठंडी हवा
और मेरी हर पहचान पर सर्दी का ये मोसम
कहीं एसा न हो
इस जिस्म को, इस रूह को ही मुन्ज्मिद कर दे
में अक्सर सोचता हूँ
जहन की तारीक गलियों में
दहकता और पिघलता
धीरे धीरे आगे बढ़ता
गम का ये लावा
अजीयत है
मगर फिर भी गनीमत है
इसी से रूह में गर्मी
बदन में ये हरारत है
ये गम मेरी जरुरत है
में अपने गम से जिन्दा हूँ