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कई बार इसका दामन / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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कई बार इसका दामन भर दिया हुस्ने-दो-आलम से
मगर दिल है कि उसकी खाना-वीरानी नहीं जाती

कई बार इसकी खातिर ज़र्रे-ज़र्रे का जिगर चीरा
मगर ये चश्म-ए-हैरां, जिसकी हैरानी नहीं जाती

नहीं जाती मताए-लाला-ओ-गौहर की गरांयाबी
मताए-ग़ैरत-ओ-ईमां की अरज़ानी नहीं जाती

मेरी चश्म-ए-तन आसां को बसीरत मिल गयी जब से
बहुत जानी हुई सूरत भी पहचानी नहीं जाती

सरे-ख़ुसरव से नाज़-ए-कज़कुलाही छिन भी जाता है
कुलाह-ए-ख़ुसरवी से बू-ए-सुल्तानी नहीं जाती

ब-जुज़ दीवानगी वां और चारा ही कहो क्या है
जहां अक़्ल-ओ-खिरद की एक भी मानी नहीं जाती