दिल पे दुनिया के रंजो-गम ठहरे ।
एक क़ैदी पे सैकड़ों पहरे ।।
ज़िंदगी फिर रही है बेवा-सी
सिर्फ़ मरघट पे बिक रहे सेहरे ।।
दर्द तो बेसतह समंदर है
बीच से ज़्यादा किनारे गहरे ।।
हद-ए-बर्दाश्त-ए-ग़म क्या है तेरी
ए दिल-ए-बेजुबान कुछ कह रे ।।
जब जहाँ जिसकी ज़रूरत पहनो
खूँटियों पर टँगे हुए चेहरे ।।
चीख़ती हैं अमावसें दिल की
चाँद-‘सूरज’-चिराग सब बहरे ।