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चार मुक्तक / सूरज राय

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1.
चाक अरमानों को, दिल को पारा-पारा कर दिया
फिर यकीं की झील के पानी को ख़ारा कर दिया ।
कँपकँपाती शाम ने, कल माँग ली चादर मेरी
और जाते-जाते, जाड़े को इशारा कर दिया ।।

2.
 
प्यार पे मैं मरूँ और प्यार पे तुम भी मरो
फूल-सा मैं भी झरूँ और फूल-से तुम भी झरो ।
इक वसीयत नस्ल-ए-कल के नाम लिख एहसास की
दस्तख़त मैं भी करूँ और दस्तख़त तुम भी करो ।।

3.

गले मिलने को तो कहता है पर, सर काट देता है
मुहब्बत और अमन का हर कबूतर काट देता है ।
अगर हिंदू के ‘ह’ और मुस्लिम से ‘म’ से हैं मुकम्मल ‘हम’
तो फिर है कौन जो अक्षर से अक्षर काट देता है ।।
 
4.

सुबह-ए-उल्फत, सुकूँ की शाम से बतिया रहा
सब हैं चुप ख़ुद से भी, वो आवाम से बतिया रहा ।
मंदिर-ओ-मस्जिद के मसले पर जहीनों में बहस
और इक पाग़ल रहीम-ओ-राम से बतिया रहा ।।