दस दोहे (41-50) / चंद्रसिंह बिरकाली
आज कळायण ऊमटी छौडे खूब हळूस।
सो-सो कोसां वरणसी करसी काळ विधूंस।। 41।।
आज काली घटा उमड़ी है, हल्के बादल खूब बिखर रहे है। यह सौ-सौ कोसों तक बरसेगी और अकाल का विध्वंस करेगी।
दिन में रात जगावती वादळियां बरसात।
कदै अमावस सी करै घट पूनम री रात।। 42 ।।
दिन को रात सी बना देने वाली ये बरसात की बादलियां कभी तो अमावस्या सी कर देती है और शिघ्र ही पूर्णिमा सी।
पी-पिहू बोल पपीहड़ां टी-टिहू टीटोडयांह।
पिहू-पिहू रव मोरियां हालै हूक जड़यांह।। 43।।
पपीहे की पी-पी, टिट्भि की टी-टिहू और मोर की ‘पिहू-पिहू‘ ध्वनि सुनकर हृदय की जड़े हिल उठी है।
ज्यूं-ज्यूं मधरो गाजियो मनड़ो हुयो अधीर।
बीजल पळको मारतां चाली विडै़चीर।। 44।
ज्यों ज्यों मधुर गर्जन हुआ मन अधीर हो उठा, बीजली की चमक के साथ ही तो हृदय में चीर चल गई।
ऊंडा टोक उळांडिया चूंखै में चमकी।
जाण बूझतां, बीजळी, जोड़ी भल ढूंढी।। 45।।
गहरे घने बादलों को छोड़कर रूई से सफेद बादल में चमकने वाली बिजली, तुने जान बुझकर यह क्या जोड़ी ढूंढी।
खिण दक्खण खिण उतर दिस खिण चोगरदीचट्।
कुण जाणै किण खोज में बीज झपाझप झट्।। 46।।
एक क्षण दक्षिण में, एक क्षण उत्तर में और फिर क्षण भर में ही चारो और। कौन जाने किस खोज में , बिजली इतनी तेजी से भागदौड़ कर रही है ?
पळ-पळ में पळका करै आभै भर्यो उजास।
जाणै प्रीतम-खोज में छाणै वीज अका्स।। 47।।
पल-पल में चमकती हुई बिजली से सारा आकाश उद्भासित हो रहा है, मानो प्रियतम की खोज मे बिजली आकाश को छान रही है।
भूरी काळी बादली बीजळ रेख खिंचाय।
जाण कसौटी ऊपरां सुवरण-रेख सुहाय।। 48।।
भूरी और काली बादली में बिजली की रेखा सी खिंच गई है, मानो कसौटी पर सोने की रेख सुहा रही हो।
जळ सो प्यारो जीव है कण सी कोमल काय।
कुणसै कूणै बादळी, राखी वीजछिपाय।। 49।।
जल से बना तुम्हारा प्रिय जीवन है और धूलिकणों से बनी कोमल काया। बादली, तुमने कौनसे कोने में बिजली जैसी चीज छिपा कर रक्खा है।
सदा संजोण मोद में रह जळहर लिपटाय।
विरहरण झुरै बीजळी, जिवड़ो मती जळाय।। 50।।
तु तो सदा संयोगिनी बन आनंद से जलधर के गले में लिपटी रहती है, पर विरहणी तो अकेली अमुझ रही है: इसका हृदय न जला।