भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इन्किशाफ़ / संजय मिश्रा 'शौक'
Kavita Kosh से
Alka sarwat mishra (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:09, 20 नवम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna}} रचनाकार=संजय मिश्रा 'शौक' संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> सुने हैं मैं…)
रचनाकार=संजय मिश्रा 'शौक' संग्रह= }}
सुने हैं मैंने
अंधेरों की खानकाह के गीत
बहुत दिनों से उजालो को
कैद करने की
वो कोशिशों में लगे हैं तो क्या किया जाए
जो अपना अक्स तलक
देख ही नहीं सकते
वो दूसरे की छवि देखने को आतुर हैं
अजीब हैं ये अंधेरों की कोशिशें जानां
अन्धेरा खुद भी तो अपना वजूद रखता है
ये इन्किशाफ नहीं हो सका अभी उस पर
इसी के गम में हिरासां
न जाने कब से वो
अब एहतेजाज भी करने लगा उजाले का
ये एहतेजाज जरूरी नहीं
मगर जानां
उसे ये जा के बताए भी तो बताए कौन?
कि ये उजाला ही उसका बड़ा मुहाफ़िज़ है
सुकोद्ता है जो परों को शाम होते ही
गरज ये है कि अन्धेरा वजूद में आए
मगर अँधेरे की आँखें नहीं हुआ करतीं
ये बात
उसको भला कौन जा के समझाए !!!